मॉब साइकोलॉजी और मॉब लिंचिंग...

#माँब_mob

एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान हमें एक विषय की पढ़ाई करनी होती है जिसे प्रिवेंटिव एंड सोशल मेडिसिन (SPM) बोलते हैं और इसके लिए हमें जो किताब पढ़नी पड़ती थी उसे हम लोग पार्क के नाम से जानते है। उस किताब में माब यानी भीड़ की परिभाषा दी गई है, जिसके अनुसार माॅब एक तरह की भीड़ होती है जिसका एक लीडर होता है जो भीड़ को किसी कार्य के लिए उकसाता है या मजबूर करता है"। माॅब  भीड़ की तुलना में अधिक भावनात्मक होती है। मांब एक खास परिस्थिति में लोगों का एक ऐसा समूह है, जिस में एक निजी व्यक्ति का व्यक्तित्व लगभग समाप्त हो जाता है, और उस के स्थान पर एक सामूहिक मन का निर्माण होता है, जो एक खास  दिशा की ओर संचालित होता है।
भीड़ में बुद्धि, विवेक, विचार, सोचने समझने की क्षमता समाप्त हो जाती है, और एक प्रकार का आवेग काम करना शुरू कर देता है।  भीड़ में अत्यधिक आवेश या गुस्सा होता है और इस में एकत्रित सभी लोगों का आवेग एक साथ काम कर रहा होता है, इसलिए व्यक्ति ना चाहते हुए भी इस ओर खींचा चला आता है और ना चाहते हुए भी माॅब के अनुरूप बर्ताव करने लगता है।  
ये आवेग  बाढ़ में उफनते हुए पानी के तरह भीड़ को एक दिशा में बहा ले जाता है में।साथ में ये भी जानना जरूरी है कि भीड़ रिस्क लेने में नहीं हिचकिचाती है यानी कि उसका Risk taking behaviour बढ़ जाता है।भीड़ में व्यक्ति बड़ा सकून महसूस करता है।
उदाहरण के लिए चोरी में पकड़े गए चोर पर भीड़ बुरी तरह से टूट पड़ती है। भीड़ की नजर में बस एक ही बात रहती है कि जिसे लोग पीट रहे है, उस पर टूट पड़ा जाए। कोई यह नहीं समझता कि जिसे पीटा जा रहा है, वह अपराधी है भी या नही? भीड़ तो अफवाहों से चलती है। अपराधी तत्व संवेदनशील समय में ऐसी अफवाहों का सहारा लेकर अपने खतरनाक मंसूबो को पूरा करते है। भीड़ का आवेग मदमस्त हाथी के समान होता है जो रौंदती कुचलती आगे बढ़ती है, फिर चाहे उस के सामने कोई क्यों न आ जाए। ये भीड़ निरीह बच्चे, दुर्बल व्यक्ति, बूढ़े आदि को नहीं देखती क्योंकि ये जब चरम पर होती है तो इसमें कोई दया भावना नहीं होती है। भीड़ के इसी गुस्से या आवेग की वजह से बहुत सारी अमानवीय घटनाएं आए दिन होती रहती हैं। आए दिन माॅब लिंचिंग #mob_lynching  की घटनाओं को इस माॅब साइकोलॉजी से आसानी से समझा जा सकता है।
इस भीड़ का क्रूर रूप हमने कई बार देखा है। इतिहास में पहले भी और आज भी ऐसा एक अमानवीय रूप 1984 के दिल्ली के दंगों में देखा गया था हाल फिलहाल में पालघर की घटना हो या हाल ही में हुए दिल्ली के दंगे, इत्यादि।
मनोवैज्ञानिक के अनुसार भीड़ की नैतिकता अत्यंत कमजोर होती है। यहां पर नैतिकता ढूंढ़ना रेतमें सुई ढूंढने जैसा होता है।
वैसे तो हर व्यक्ति के अंदर हिंसक विचार होते है, मगर वह उन्हें जाहिर करने में उसी तरह झिझकता है, जैसे उजाले में सबके सामने कपड़ा उतारने में। भीड़ के अंधेरे में इंसान की हिंसकता मुखर हो उठती है। कई बार भीड़ कैसा बर्ताव करेगी ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि भीड़ का लीडर कैसा है जो इसे संचालित कर रहा होता है। यदि संचालित करने वाला कोई श्रेष्ठ व्यक्ति हो तो भीड़ से श्रेष्ठ काम भी करा लेता है, परंतु ऐसा कम ही देखने को मिलता है।
आजकल इस भीड़ का उपयोग अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए किया जाता है।भीड़ तो एक आवेग का उफान है, इसे जैसा इस्तेमाल किया जाए वैसा ही करेगी।आजकल जान लेने वाली ये भीड़ सोशल मीडिया के नियमों पर चलती है और हिंसा को आगे जंगल की आग की तरह आगे बढ़ाती है. भीड़ जुटाने वाली इस डिजिटल​ हिंसा को एक अलग तरह की समझ की ज़रूरत है.
भारत के इस डिजिटल दौर में हिंसा का ख़तरा दिन प्रति दिन और ज़्यादा बढ़ रहा है. तकनीक की रफ़्तार और भीड़ की तर्कहीनता बदलते समाज का ख़तरनाक संकेत है।
हम भीड़ में खुद को खोते है और एकाकी मन में स्वंय को पाते है। ये हमें खुद तय करना है कि हमें इस भीड़ में खोना है या नहीं। हमें भीड़ का हिस्सा बनना कि नहीं बनना है।
                                             धन्यवाद।
                                             #Dr_S_B_Mishra
                                             #Psychiatrist
#mobpsychology
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